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बुधवार, 12 सितंबर 2007

संदर्भ: पेटेंट पर माशेल्कर की रिपोर्ट -नकल की अकल भी नहीं - चान पार्क एवं अचल प्रभाला

हाल ही में पेटेंट नियम-मुद्दों पर विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट जारी हुई है। संसद में 2005 में प्रस्तावित पेटेंट (संशोधन) विधेयक पर जो बहस हुई थी, उसके बाद भारत सरकार द्वारा विवादित मुद्दों की जांच के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाई गई, जिसके अध्यक्ष डा. आर ए माशेल्कर बनाए गये (जो सीएसआईआर के महानिदेशक तथा सीएसआईआर की प्रयोगशालाओं के मुखिया भी हैं )। हाल ही में आई 56 पेजों की माशेल्कर रिर्पोट (पूरी रिपोर्ट डब्लूडब्लूडब्लू डॉट डिप डॉट निक पर उपलब्ध है) पर न तो कोई कुछ कह रहा है और न तो सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया हुई है।
अगर इस रिर्पोट पर ध्यान न दिया गया, तो आगे कठिनाई हो सकती है; क्योंकि इसकी गोल-मोल भाषा में कुछ ऐसी सिफारिशें हैं, जिनको अगर मान लिया गया तो कई आवश्यक दवाओं के दाम हमें ज्यादा चुकाने होंगे। जैसे ल्यूकीमिया रोगी देखेंगे कि उनकी दवा का दाम 12 गुना बढ़ जायेगा। माशेलकर रिर्पोट की कहानी; बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की पेटेंट के लिए अत्यधिक मांग और राष्ट्रीय बौध्दिक सम्पदा कानूनों को प्रभावित किए जाने में संदेहास्पद भूमिका की है।

पेटेंट ऐसे सीमित एकाधिकार हैं, जो राष्ट्रीय सरकारें, कारपोरेट लॉबी की चाहत पर प्रदान करती हैं। जिनका नियमन डब्ल्यूटीओ जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं द्वारा किया जाता है। इस सारे खेल के पीछे तर्क यह है कि नई दवाओं की खोज के लिए काफी पैसा लगता है और इस निवेश के लिए कंपनियों को 'इनसेन्टीव' यानी बढ़ावा चाहिए, यह सुरक्षा पेटेंट से प्राप्त होती है। पर व्यवहार में यह एक बड़ी समस्या है। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने तो पूरी व्यवस्था को अपने अनुकूल ही बदल दिया है। वे नई दवाओं के खोज कम कर रही हैं, अपितु वर्तमान दवाओं पर ही अपना एकाधिकार बनाए रखने के लिए पेटेंट पर ज्यादा ध्यान लगा रही हैं। व्यापारिक भाषा में इसे 'हमेशा मुनाफे का सौदा' (एवरग्रीनिंग) कहा जाता है, जिसे माशेल्कर की रिर्पोट के नई उपयोगी खोज (इन्क्रीमेंटल इनोवेशन) शब्द मानने की गलती नहीं करनी चाहिए। हालांकि इन दोनों में अन्तर करना काफी कठिन है।

पेटेंट, एक ऐसे अनन्तिम एकाधिकार को पैदा करता है, जिससे न केवल 20 सालों तक, बल्कि आजीवन जरूरी दवाओं के दाम बढ़ते जाएंगें क्योंकि केवल एक ही निर्माता बाजार में दवा की आपूर्ति कर सकता है। ( क्योंकि पुरानी दवाओं में ही थोड़े-बहुत बदलाव करके बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां 'उत्पाद पेटेंट' अपने नाम करवाती रह सकती हैं।)
2005 में भारत द्वारा डब्ल्यूटीओ के ट्रिप्स समझौते के तहत पेटेंट कानून में संशोधन करते ही हंड़कंप मच गया था। इस संशोधन से भारतीय रोगी और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां दोनों ही असंतुष्ट रहे थे। (भारतीय रोगी तो दवाओं के दाम बढ़ने की आशंका से और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां अपने पेटेंटों पर पूरी तरह छूट न मिलने से।) समस्या यह है कि क्या भारत वास्तविक रूप से नई और अविष्कृत दवाओं पर पेटेंट कानून को सीमित करने के बाद भी ट्रिप्स से जुड़ा रह सकता है? ( क्योंकि दोहा के डब्लूटीओ काफ्रेंस में बड़ी बीमारियों की स्थिति में 'उत्पाद पेटेंट' को भी सीमित किया जा सकता है, का अधिकार मिला।) पेटेंट कानून-मुद्दों पर तकनीकी जांच के लिए ही प्रसिध्द भारतीय वैज्ञानिक डा. माशेल्कर की अध्यक्षता में विशेषज्ञों का एक दल बनाया गया, जिसे दो प्रश्नों का समाधान ढूंढ़ना था जिसमें एक यह है कि'' थोड़े-बहुत रासायनिक बदलाव करके बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियाें द्वारा दवा को नई दवा के रूप में प्रस्तुत करने पर दिये गयें पेटेंट अधिकारों को सीमित करना, क्या ट्रिप्स के अनुकूल है? माशेल्कर समिति ने निष्कर्ष में कहा है कि ''यह न तो ट्रिप्स के अनुकूल है, और न ही राष्ट्र हित में है।''

छिछला विश्लेषण
आइए समझें कि ये निष्कर्ष कैसे निकाले गए। अप्रैल 2005 में वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय द्वारा बनाई गई 'पेटेंट नियम-मुद्दों समिति' में माशेल्कर के अतिरिक्त चार अन्य विशेषज्ञ थे; प्रो. गोवर्धन मेहता, असिस दत्ता, एन आर माधव मेनन और मूलचंद शर्मा। इस समिति ने दिसंबर 2006 में मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट भेज दी। डेढ़ वर्ष के परिश्रम के बाद आई माशेल्कर रिपोर्ट में कोई खास चीज सामने नहीं आयी है, मात्र द्वितीयक आंकड़े, और 'बाहरी पक्षों' द्वारा पूर्व में निकाले गये निष्कर्ष ही शामिल किए गए हैं।

'बाहरी पक्षों' के निष्कर्ष के मायने

हैरानी की बात तो यह है कि नई रासायनिक पहचानों से सम्बन्धित अनेक निष्कर्ष और रिपोर्ट का आधा भाग 2006 में प्रकाशित एक रिसर्चपेपर ''लिमिटिंग द पेटेंटेबिलिटि ऑव फार्मेस्यूटिकल इंवेंशन एण्ड माइक्रो ऑर्गेनिज्मस्: ए ट्रिप्स कम्पैटिबिलिटि रिव्यू'' से शब्दश: लिया गया है। शमनाद बशीर द्वारा लिखित यह पेपर ब्रिटेन के ''इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी इंस्टीटयूट द्वारा प्रकाशित किया गया था। शमनाद बशीर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के 'इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी रिसर्च सेन्टर' में एसोसिएट और शोधार्थी हैं। उनने अपने पेपर के फूटनोट में स्पष्ट लिखा है कि इस रिसर्च के लिए उन्हें आईपीआई से अनुमति और 'इण्टरपैट से वित्तीय सहायता प्राप्त हुई थी। 'इंटरपैट' रिसर्च संबंधी यूरोपीय, जापानी और अमरीकी दवा कंपनियों की स्विस एसोसिएशन है, जो दुनिया भर में बौध्दिक सम्पदा कानूनों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिसाब से बदलाव के लिए काम करती है।
बशीर महोदय ने अपने ब्लॉग 'स्पाईसीइपइंडिया.ब्लॉगस्पाट. कॉम पर माशेल्कर दल के निष्कर्षों को देखकर खुश होकर कहा है कि ''मेरे द्वारा निकाले गये निष्कर्ष ही समिति की रिर्पोट में लिए गए हैं। भारतीय पेटेंट कानून का अच्छा ज्ञान होने के कारण एक स्वतंत्र परामर्शदाता के रूप में मुझे रिर्पोट भेजने के लिए ब्रिटेन के 'बौध्दिक सम्पदा संस्थान' से अनुमति मिली थी। माशेल्कर समिति ने इस रिपोर्ट की शब्दश: नकल की है। अगर माशेल्कर समिति इन स्रोतों का उल्लेख करती तो मुझे खुशी होती। पर राजनैतिक द्वंद और कुशल नाटकीय अभिनय से घिरी समिति से ऐेसी अपेक्षा करना बेकार ही है।''
पांच प्रसिध्द व्यक्तियों की एक समिति भारत के लाखों लोगों के लिए प्रामाणिक, पेटेंट कानून पर जांच के लिए डेढ़ वर्ष का समय लगाती है और अंत में एक ऐसी रिपोर्ट तैयार करती है; जिसके निष्कर्ष बिना आभार व्यक्त किए एक ऐसे पेपर से नकल किए गए हैं, जिसके लिए ब्रिटेन में स्थित बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की असोसिएशन 'इंटरपैट' द्वारा वित्तीय सहायता दी गई थी।

जब भारत ने 2005 में पेटेंट कानून में संशोधन किया तो उसमें कुछ ऐसे प्रावधान शामिल किए गए, जिससे दवा कंपनियों को 'एवरग्रीन' बनने की छूट न मिले। इसमें निर्देश दिया गया कि यदि कोई दवा कंपनी पहले से मौजूद किसी दवा के सुधार के लिए पेटेंट चाहती है, तो उसे यह साबित करना होगा कि सुधार से दवा ज्यादा असरदार बन जाएगी। हालांकि इससे ऐसा लगता है कि इस व्यवस्था में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों का कोई हित नहीं है। लेकिन तथ्य यह है कि चूंकि ट्रिप्स में संप्रभू राज्यों को पेटेंट मानक में परिवर्तन करने का अधिकार दिया गया है तो भारत को भी अपना 'पेटेंट मानक' उच्च स्तरीय ही रखना चाहिए।

माश्लेकर के तकनीकी दल की रिपोर्ट इस परिवर्तनशीलता पर अजीब तर्क देती है। डब्ल्यूटीओ के इस मामले पर निर्णय के बावजूद भी, माश्लेकर रिपोर्ट में कहा गया है कि पेटेंट व्यवस्था पर भारत का कठोर रुख ट्रिप्स के खिलाफ है, और अब बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां भी इसी तर्क का सहारा ले रहीं हैं, ताकि हमने काफी कठिनाई से जो थोड़ी सी सुरक्षा वर्तमान कानून में हासिल की है, वह भी खत्म हो जाए।

माशेल्कर की यह रिपोर्ट दोहा समझौते से प्राप्त थोड़ी-बहुत सहूलियत पर प्रहार का पहला प्रयास है। निश्चय ही और भी प्रयास किए जाएंगे जैसे कि 'अफोर्डबल जेनरिक मेडिसिन' के तर्क को टालने के लिए 'फार्मास्यूटिकल डाटा एक्सक्लूजिविटि' जैसे विवाद खडे क़िए जा रहे हैं।